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निकटता से पहले नेचर और नज़रिया समझें 

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     राजेंद्र शुक्ला, मुंबई

      हर किसी को प्रबंधक बनने की क्षमता का विकास करना चाहिए, भले ही उसे किसी मिल, कारखाने, पार्टी, फैक्ट्री, स्कूल आदि में प्रबंधक के पद पर नियुक्त होने का अवसर न आये, क्योंकि जीवन की अधिकांश प्रक्रिया पारस्परिक आदान-प्रदान, सहयोग पर निर्भर है।

       सद्भाव अर्जित किये बिना, तालमेल बिठाये बिना प्रगति पथ पर एक कदम भी नहीं चला जा सकता। अपने छोटे से व्यवसाय में, कर्मचारी बनकर रहने में पग-पग पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। उपेक्षा की स्थिति बनी रहने में घाटा ही घाटा है, फिर यदि किसी से सहयोग की अपेक्षा होती है, तो उस पर दबाव डालने की अपेक्षा यह अधिक सरल है कि अपनी योग्यता को इस रूप में प्रस्तुत करें कि सम्बन्धित व्यक्तियों को यह आशा बंधे कि इनके साथ स‌द्भाव बनाये रहने में हमें ही लाभ है।

       यह कार्य मिथ्या शेखीखोरी के आधार पर बन नहीं पड़ता, क्योंकि बनावट, अत्युक्ति प्रकट करते-करते ऐसे अनेकों सन्देह के क्षेत्र छोड़ देती है, जिस पर झाँक कर किसी का बड़बोलापन आँका जा सके। कुछ समय बाद तो अत्युक्तियों से घुला हुआ झूठ प्रकट होकर ही रहता है, तब फिर प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाने पर साधारण कथन भी सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगता है।

       इसके बाद बचने, दूर रहने की बारी आ जाती है। इस झंझट में पड़ने की अपेक्षा यही उपयुक्त है कि अपनी कार्य शैली में व्यवस्था तत्व का समुचित समावेश होने की बात अपने क्रियाकलापों में ही प्रकट होने दी जाय। 

   घर परिवार भी एक पाठशाला, सहकारी समिति या फैक्ट्री के समतुल्य है, उसमें भिन्न-भिन्न स्तर के सदस्य रहते हैं। आवश्यक नहीं कि उनमें सभी समझदार हों।

       उनमें से कुछ संस्कारवश उद्दण्ड या अनगढ़ भी हो सकते हैं। इनमें से किसी को भी घर से बाहर निकाल बाहर नहीं किया जा सकता । बात तभी बनती है कि अन्यों का स्वभाव, दृष्टिकोण समझते हुए उनके साथ इस प्रकार तालमेल बिठाया जाय, कि कम से कम हानि पहुचायें और जितना कुछ बन पड़े उतना सहयोग करते रहने में किसी प्रकार की बाधा न पड़े। डराने-धमकाने की आवश्यकता तो विवशता की स्थिति सामने आ जाने पर ही अपनानी चाहिए।

       प्रयत्न यही रखना चाहिए कि जिनके साथ इच्छा या अनिच्छा से रहना ही पड़ेगा, उनके साथ मनोमालिन्य जैसी स्थिति न बनने दी जाय। दूसरी ओर से उपेक्षा बरती जा रही हो तो भी अपनी ओर से सज्जनता भरा व्यवहार करते रहने की नीति अपनाये रहने में ही लाभ है।

    सबको अपनी इच्छा के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता, पर इतना तो हो ही सकता है। विग्रह को टालते रहने और निरर्थक बातों में अपना समय और चिन्तन नष्ट होने देने की हानि से बचा जाता रहे।

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