अग्नि आलोक
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अपनी ही दीवारों में 

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मंजुल भारद्वाज 

मैं सत्य की खोज में
वहां पहुंच गया हूं
जहां धर्म,ईश्वर,
झूठ और सत्ता के गटर का
दलदली उद्गम नज़र आने लगा है!

मैं ज़ोर ज़ोर से बोल रहा हूं
इस दलदली गटर में
मत जाओ
मत कूदो
सत्य के साथ चलो !

पर मेरी आवाज़
कोई नहीं सुन रहा
कोई तुलसी की चौपाइयां
गाते हुए
कोई दोहा
कोई सनातन सूक्तियां
गाते हुए दलदली गटर में
कूद रहे हैं!

मैं जैसे अपनी ही दीवारों में कैद हूं
कोई नहीं सुन रहा
सब मेरे सामने
विकास के टाइटेनिक पर सवार हैं !

मैं चीख रहा हूं
सत्ताधीश के झूठ का पर्दाफाश करो
पर सब
समरथ को ना दोष गुसाईं
गाते गाते दलदल में
समाधिस्त हो रहे हैं….

अपने सामने
मनुष्य का शरीर लिए
मनुष्य को
कीड़े मकोड़ों की तरह
रेंगेंते देख रहा हूं
इससे बड़ी
वेदना और क्या हो सकती है?

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