अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

परमार्थ के लिये स्वार्थ छोड़ना आवश्यक 

Share

        राजेंद्र शुक्ला, मुंबई 

      हर महापुरुष को अपने चारों ओर घिरे हुये पुराने ढर्रे के वातावरण को तोड़-फोड़ कर नया पथ−प्रशस्त करने का दुस्साहस करना पड़ा है। बुद्ध, गाँधी, ईसा, प्रताप, शिवाजी, मीरा, सूर, विवेकानन्द, नानक, परविन्द, भामाशाह, भगतसिंह, कर्वे, ठक्कर बापा, विनोबा, नेहरू आदि किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति का जीवन-क्रम परखें उनमें से हर एक ने पुरानी परिपाटी के ढर्रे को जीने से इनकार अपने लिये अलग रास्ता चुना है और उस पर साहसपूर्वक अड़ जाने का साहस दिखाया है।

       उनके परिवार वाले तथा तथाकथित मित्र अन्त तक इस प्रकार के साहस को निरुत्साहित ही करते रहे, पर उनने केवल अपने विवेक को स्वीकार किया और प्रत्येक शुभ चिन्तक से दृढ़तापूर्वक असहमति प्रकट कर दी। शूरवीरों का यही रास्ता है। 

     आत्म-कल्याण और विश्व-मंगल की सच्ची आकाँक्षा रखने वाले को दुस्साहस को अनिवार्य रीति के शिरोधार्य करना ही पड़ता है। इससे कम क्षमता का व्यक्ति इस मार्ग पर देर तक नहीं चल सकता।

      परमार्थ के लिये स्वार्थ को छोड़ना आवश्यक है। आत्म-कल्याण के लिये भौतिक श्री-समृद्धि की कामनाओं से मुँह मोड़ना पड़ता है। दोनों हाथ लड्डू मिलने वाली उक्ति इस क्षेत्र में चरितार्थ नहीं हो सकती। उन बाल-बुद्धि लोगों से हमें कुछ नहीं कहना, जो थोड़ा-सा पूजा-पाठ करके विपुल सुख साधन और स्वर्ग मुक्ति दोनों ही पाने की कल्पनायें करते रहते हैं। 

     दो में से एक ही मिल सकता है। जिसकी कामनायें प्रबल हैं, वह उन्हीं की उधेड़बुन में इतना जकड़ा रहेगा कि श्रेय साधना एक बहुत दूर की मधुर कल्पना बन कर रह जायगी। और जिसे श्रेय साधना एक बहुत दूर की मधुर कल्पना बन कर रह जायगी और जिसे श्रेय साधना है उसे पेट भरने, तन ढकने में ही संतोष करना होगा तभी उसका समय एवं मनोयोग परमार्थ के लिये बच सकेगा। 

      सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के प्रत्येक श्रेयार्थी का इतिहास यही है। उसे भोगों से विमुख हो त्याग का मार्ग अपनाना पड़ा है। आत्मोत्कर्ष की इस कीमत को चुकाये बिना किसी का काम नहीं चला। आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है।इस चक्र में घूमते रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। 

      तीर्थ-यात्रा, व्रत उद्यापन, कथा कीर्तन, प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिये ठीक हैं पर उनसे किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिये। 

     उपासना से नहीं साधना से कल्याण की प्राप्ति होती है और जीवन साधना के लिये व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना ही होता है जिसमें लोक-मंगल के लिये महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।

      इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है जो त्याग तप की दृष्टि से आवश्यक साहस प्रदर्शित कर सके। लोगों की निंदा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को विचार किये बिना विवेक बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। 

     यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुये दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा।

Add comment

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें