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लघुकथा- एक ही थाली  के चट्टे-बट्टे 

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-विवेक मेहता 

           एक बार फिर से किसान ने अपने लड़कों को लकड़ी के गट्ठर के द्वारा एकता की सीख देने की कोशिश की। इस बार लड़के उससे सहमत नहीं  हुए। उनका मानना था कि जमाना बदल गया। अब लकड़ी का गट्ठर भी काटा जा सकता है और अलग-अलग रहते हुए झगड़ों का दिखावा करते-करते सहयोग कर ज्यादा उन्नति की जा सकती है। जैसे- गठ्ठर पर हमला करते वक्त कुल्हाड़ी का हत्था बन जाए और ऐनवक्त  पर उससे अलग हो जाए। 

किसान की समझ में बेटों की यह बात बात नहीं आई। तब उसे समझने के लिए एक बेटे ने पूछा- “जम्मूद्वीप के राजा के बेटे- सफेद, भगवा, हरा, लाल और नीला सब के सब मक्कार, घुर्त, झूठे, लालची, लंपट और भ्रष्टाचारी थे या नहीं?” 

“थे” 

“इन सब के अत्याचारों से त्रस्त होकर जनता ने विद्रोह कर राजतंत्र को समाप्त कर जनतंत्र स्थापित किया था या नहीं?” “किया था” 

“गुलामी से मुक्ति के बाद इन्होंने अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों बनाकर एक दूसरे का विरोध किया था या नहीं?”

“हां, किया था” 

“जनतंत्र स्थापित होने के बाद आज तक वहां का राज इन लोगों के अलावा किसी ने संभाला?” 

“नहीं संभाला” 

“क्यों?”-बेटे ने सवाल उछाला। 

“क्योंकि ये लोग ही एक दूसरे के प्रति होने वाले विद्रोह का नेतृत्व करते और जब जरूरत होती तब एक दूसरे का साथ दे सरकार  बना लेते।”-किसान ने उत्तर दिया।

                 इस उत्तर के बाद चुप्पी छा गई।

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