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अब तक सुप्रीम कोर्ट के वो फैसले जिसके बाद भारतीय लोकतंत्र की नींव हुई और मजबूत

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देश के लोकतंत्र की नीव मजबूत करने में न्यायपालिका की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही है। शीर्ष अदालत ने 1951 से लेकर अब तक कई ऐसे फैसले सुनाए हैं जो चुनावी प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित हुए हैं। ऐसे में नजर डालते हैं 1951 से लेकर अब तक के ऐसे ही फैसलों के बारे में।

देश में लोकसभा चुनाव जारी है। पहले दौर का मतदान 19 अप्रैल को चुका है। अभी 6 चरण का मतदान बाकी है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 100% ईवीएम-वीवीपीएटी सत्यापन की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने ईवीएम में अपना विश्वास दोहराया। यह 72 साल पुराने अदालती हस्तक्षेपों की लंबी सूची में एक नया फैसला है। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों ने आजादी के बाद से देश में हुए चुनाव से जुड़े फैसलों के जरिये भारत के लोकतंत्र को आकार और समृद्ध किया है। धनंजय महापात्रा ऐसे ही ऐतिहासिक निर्णयों के बारे में बता रहे हैं।

चुनाव शुरू होने पर कोर्ट का हस्तक्षेप नहीं

साल 1952:पहले आम चुनाव से कुछ महीने पहले, जनवरी 1952 में, सुप्रीम कोर्ट ने पोन्नुस्वामी मामले में फैसला सुनाया था। इसमें शीर्ष अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 329 (बी) में ‘चुनाव’ शब्द “चुनाव को बुलाने वाली अधिसूचना जारी करने के साथ शुरू होने वाली पूरी चुनावी प्रक्रिया को दर्शाता है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि चुनावी प्रक्रिया एक बार शुरू होने के बाद किसी भी मध्यस्थ चरण में कोर्ट की तरफ से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। परिणामस्वरूप, एक पीड़ित उम्मीदवार परिणामों की घोषणा के बाद केवल चुनाव याचिका के माध्यम से चुनाव विसंगतियों को चुनौती दे सकता है।

साल 1971:उस समय 1969 में कांग्रेस विभाजित हो गई थी। जगजीवन राम और एस निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाले गुटों ने पार्टी के नाम पर दावा किया। ऐसे में चुनाव आयोग (ईसी) ने यह देखते हुए जगजीवन राम गुट के पक्ष में फैसला सुनाया कि उन्हें कांग्रेस सांसदों, विधायकों और प्रतिनिधियों का बहुमत समर्थन प्राप्त था। बाद में, सादिक अली मामले (1971) में, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को बरकरार रखा। उस समय यह पता लगाने में स्पष्ट कठिनाइयां थीं कि प्राथमिक सदस्य कौन थे और उनकी इच्छाओं का पता लगाने में… यह वैध रूप से माना जा सकता है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य और प्रतिनिधियों ने कुल मिलाकर प्राथमिक सदस्यों के विचारों को प्रतिबिंबित किया। चुननाव आयोग ने हाल ही में शिवसेना और एनसीपी में हुए विभाजन पर उसी आधार पर फैसला सुनाया, जिस आधार पर उसने 1969 के कांग्रेस मामले में दिया था।

पीएम, स्पीकर के खिलाफ चुनाव याचिकाओं पर विचार से रोक

साल 1975: 12 जून 1975 को, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से चुनाव रद्द कर दिया। इसके बाद आपातकाल की घोषणा हो गई। सुप्रीम कोर्ट में पीएम की अपील के लंबित रहने के दौरान, संसद ने चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 1975 पारित किया। इससे लोक प्रतिनिधित्व (आरपी) अधिनियम के कई प्रावधानों को बदल दिया गया। संसद ने 39वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम भी बनाया, जिसमें अदालतों को पीएम और स्पीकर के चुनावों की जांच करने से रोक दिया गया। नवंबर 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा के चुनाव को बरकरार रखा, लेकिन 39वें संशोधन अधिनियम को आंशिक रूप से रद्द कर दिया। इसने अदालतों को पीएम और स्पीकर के खिलाफ चुनाव याचिकाओं पर विचार करने से रोक दिया।

मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा

2002/2004: सदी के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने मतदाता अधिकारों की रक्षा और विस्तार के लिए कई ऐतिहासिक फैसले दिए। 2002 में, यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स मामले में, इसने फैसला सुनाया कि मतदाताओं को उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड, शिक्षा स्तर और संपत्ति सहित उनके बारे में जानने का मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सूचना का अधिकार चुनने के अधिकार का पूरक है। यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से आता है। इसके बाद एनडीए सरकार एक विधेयक लेकर आई। इसमें उम्मीदवारों को आपराधिक पृष्ठभूमि घोषित करने से छूट देने के लिए आरपी अधिनियम में धारा 33बी पेश की। 2004 में, SC ने इस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके बाद उम्मीदवारों को एफआईआर सहित उनके खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की घोषणा करना अनिवार्य कर दिया गया।

आरपी एक्ट की धारा 8(4) को किया रद

जुलाई 2013:लिली थॉमस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आरपी एक्ट की धारा 8(4) को रद कर दिया। ये धारा सांसदों और विधायकों को भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी ठहराए जाने या अन्य आपराधिक मामलों में दो या अधिक साल की सजा होने के बाद भी विधायक बने रहने की अनुमति देती थी। ऐसा अगर वे दोषसिद्धि के 90 दिनों के भीतर उच्च मंच पर अपील करते। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, अयोग्यता स्वचालित रूप से लागू हो जाती है। यदि कोई ऊपरी अदालत दोषसिद्धि और सजा पर रोक लगाती है तो एक विधायक अपनी सीट वापस पा सकता है।

सितंबर 2013:पीयूसीएल मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं के लिए उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) विकल्प पेश किया। कोर्ट ने यह टिप्पणी भी कि की मतदाता को ‘राजनीतिक दलों द्वारा खड़े किए जा रहे उम्मीदवारों के प्रति अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने देना’ बेहद महत्वपूर्ण था। कोर्ट का कहना था कि बढ़ती अस्वीकृति धीरे-धीरे प्रणालीगत परिवर्तन लाएगी और राजनीतिक दल लोगों की इच्छा को स्वीकार करने और ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए मजबूर होंगे जो अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं। चुनाव में नोटा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा।

VVPAT को लागू करने पर जोर

अक्टूबर 2013:सुब्रमण्यम स्वामी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में अनिच्छुक चुनाव आयोग को चरणबद्ध तरीके से ईवीएम में वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) लागू करने के लिए मजबूर किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम इस बात से संतुष्ट हैं कि ‘पेपर ट्रेल’ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। ईवीएम में मतदाताओं का विश्वास केवल ‘पेपर ट्रेल’ की शुरुआत से ही हासिल किया जा सकता है। वीवीपैट प्रणाली वाली ईवीएम मतदान प्रणाली की सटीकता सुनिश्चित करती हैं।

साल 2014:मनोज नरूला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पीएम और सीएम को सलाह दी कि मंत्रिपरिषद में उनकी भूमिका और उनके द्वारा ली जाने वाली शपथ की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को मंत्री न बनाया जाए। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि संविधान यही सुझाता है और यही प्रधानमंत्री से संवैधानिक अपेक्षा भी है। बाकी को प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ना होगा। हम न कुछ ज़्यादा कहते हैं, न कुछ कम।

चुनाव आयुक्त की नियुक्ति, इलेक्टोरल बॉन्ड

2 मार्च, 2023को, SC की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि CEC और EC का चयन 3 सदस्यीय पैनल द्वारा किया जाएगा। इसमें PM, विपक्ष के नेता और CJI शामिल होंगे। बाद में वर्ष में, सरकार ने सीईसी/ईसी की नियुक्ति पर एक अधिनियम पारित किया। इसमें सीजेआई के स्थान पर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को नियुक्त किया गया। 12 जनवरी, 2024 को SC ने नए कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने मार्च में 2 ईसी के चयन में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। हालांकि उसने नियुक्तियां करने में की गई ‘जल्दबाजी’ के लिए सरकार को फटकार लगाई थी।

चुनावी बांड:15 फरवरी, 2024 को, CJI डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 5-जजों की पीठ ने राजनीतिक डोनर की पहचान गुप्त रखने वाली चुनावी बांड योजना को ‘असंवैधानिक’ और अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया। चुनावी फंडिंग के एक तरीके के रूप में चुनावी बांड 2017 में पेश किए गए थे। भारतीय स्टेट बैंक के फैसले और अदालत के बाद के सख्त निर्देशों के कारण इलेक्टोरल बॉन्ड डेटा सार्वजनिक डोमेन में आ गया।

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